badal

बादलों बरसने को आँखें तरस गई है तुम तो न बरसे पर आँखें बरस गई है राजेश “अरमान ”

वक़्त

गुजरे वक़्त की स्याही पन्नो पे रहती काबिज़ अब के दौर की दास्ताँ को कोई कलम न दे – राजेश ”अरमान”

दहकती आग थी

दहकती आग थी कुछ चिंगारियां थी ये तो बस अपनों की ही रुसवाईयाँ थी जो कभी पैरहन से लिपटे मेरे चारसू अब वो न उनकी…

वो प्यार

वो प्यार इतना मुझे करते है ख्वाबों में आने से भी डरते है इन्तहा इश्क़ का न आलम पूछो वो ज़ख्म देते भी और भरते…

युँ तो देखे

युँ तो देखे हर पल रंग ज़िंदगी के समुंदर ने बख्शे दिन तिश्नगी के युँ तो काफिलें भी थे मंज़िलें भी तलाश रही मुकाम पाकीजगी…

ज़ेहन में बैठे

ज़ेहन में बैठे कई अफ़सोस है बोलते सन्नाटे जुबां खामोश है अब वज़ूद कछुए का मिट गया बाज़ी जीतता सोता खरगोश है राजेश’अरमान’

अब तो धब्बों

अब तो धब्बों की भी नुमाइश होती है बस चर्चे में रहने की खवाइश होती है ज़िक्र उसका भला क्यों करता जमाना यहाँ तो सुर्खिओं…

वो फिर मिलेंगे

वो फिर मिलेंगे फूल फिर खिलेंगे कुछ  हादसें होंगे कुछ फासले होंगे कमबख्त वफ़ा ताउम्र इम्तहान देती रही             राजेश’अरमान’

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