badal
बादलों बरसने को आँखें तरस गई है तुम तो न बरसे पर आँखें बरस गई है राजेश “अरमान ”
बादलों बरसने को आँखें तरस गई है तुम तो न बरसे पर आँखें बरस गई है राजेश “अरमान ”
ज़िंदगी जब भी ठहरी लगती है अंधी ,गूंगी और बहरी लगती है राजेश”अरमान”
वज़ूद आईने का सामने आ गया जब कोई पत्थर से ठोकर खा गया तब से सम्भाल रखता हूँ ज़ख्मों को जब कोई दोस्त नमक ले…
गुजरे वक़्त की स्याही पन्नो पे रहती काबिज़ अब के दौर की दास्ताँ को कोई कलम न दे – राजेश ”अरमान”
दहकती आग थी कुछ चिंगारियां थी ये तो बस अपनों की ही रुसवाईयाँ थी जो कभी पैरहन से लिपटे मेरे चारसू अब वो न उनकी…
वो प्यार इतना मुझे करते है ख्वाबों में आने से भी डरते है इन्तहा इश्क़ का न आलम पूछो वो ज़ख्म देते भी और भरते…
सवाल .जवाब बहुत कहा कोई नई राह चल उसने कहा भीड़ के साथ चल कुछ तो दिल की भी रख लो दिल बस धड़कने…
कभी खुद को मदारी बना दिया कभी खुद ही तमाशा बन गए कभी खुद सिमट कर बैठ गए कभी खुद ही दिलासा बन गए राजेश’अरमान’
युँ तो देखे हर पल रंग ज़िंदगी के समुंदर ने बख्शे दिन तिश्नगी के युँ तो काफिलें भी थे मंज़िलें भी तलाश रही मुकाम पाकीजगी…
अब जो चेहरे पे नज़र जाती है साँसें कुछ देर को ठहर जाती है सब यहाँ मौजू मगर खुद ग़ुम कुछ खोने की अब खबर…
कुछ तो बदले हम , कुछ बदल गई फ़िज़ा भी कुछ तो हैरा है चमन और कुछ खिजाँ भी अपने चेहरे का गांव कब तब्दील…
ज़ेहन में बैठे कई अफ़सोस है बोलते सन्नाटे जुबां खामोश है अब वज़ूद कछुए का मिट गया बाज़ी जीतता सोता खरगोश है राजेश’अरमान’
वो न बदल सका पर मुझे बदल गया मुझे भी न बदलने का हुनर आ गया राजेश’अरमान’
हाथ की रेखाओं को क्यों बदनाम करते हो खुद ही हर सुबह को क्यों शाम करते हो पशेमाँ होके न बैठेगा ये बेदर्द जमाना आप…
धुँधले आईने से कोई अक्स निकल नहीं पाता वक़्त की सुइयाँ पकड़ने से वक़्त बदल नहीं जाता वो मोम सा बना रहता , कोई पत्थर…
सब अच्छे बुरे का मैं दोषी नहीं सब कुछ तय है फिर मेरे होने का मुझे ही क्यों हर पल भय है/ मैं फिर क्यों…
कुछ तो शोलों को भी खबर थी एक दुनिया थी जो बेखबर थी कुछ चिंगारिया दबी थी कोने में ये गुजरती हवाओं को भी खबर…
इन काँटों को फूलों से अलग न करना इनमे दबे है कुछ एहसास मुरझाए राजेश’अरमान’
गांठ बंधे रिश्तों में एहसास क्यों ढूँढ़ते हो सेहरा की रेत में प्यास क्यों ढूँढ़ते हो हर शख्स कुछ न कुछ दे ही गया ज़ख्म…
दुनिया की रस्मों में इन्सां कहाँ मगर गया वो शहर की रौनक में कौन भर जहर गया अब भी बैठे ही उन लम्हों की चादर…
बदलते रहे वही नज़रें बार-बार हमने तो बस अपना चश्मा बदला राजेश’अरमान”
कितना होता है गुरूर इंसान को ये करता अपनों से दूर इंसान को जिसको देखो वही मद में चूर है वक़्त देता सबक जरूर इंसान…
इतना भी मुश्किल तो न था मुश्किल कहने में जो देर लगी राजेश’अरमान’
लो फिर मौसम बदला फिर तेरी याद आई राजेश’अरमान’
खुद से अंजान आदमी पूछता जनाब आप कौन राजेश’अरमान’
अब तो धब्बों की भी नुमाइश होती है बस चर्चे में रहने की खवाइश होती है ज़िक्र उसका भला क्यों करता जमाना यहाँ तो सुर्खिओं…
दुनिया की रस्मों में इन्सां कहाँ मगर गया वो शहर की रौनक में कौन भर जहर गया अब भी बैठे ही उन लम्हों की चादर…
उसके जाने आने के दरम्यां छुपी सदियाँ थी कुछ था पतझड़ सा तो कुछ हरी वादियां थी उसकी ख़ामोशी में दबी दबी सी बैठी…
खार भी रखते पर आँखों में बसे फूल भी है सादगी की मिसाल पर चेहरे में पड़े शूल भी है वो बदलते रहे कुछ ज़माने…
खार भी रखता पर आँखों में बसे फूल भी है सादगी की मिसाल पर चेहरे में पड़े शूल भी है वो बदलते रहे कुछ ज़माने…
मुझ से उकता कर खिड़की से भाग गई वो शाम जो साथ थी मेरे ले आई पकड़ एक रात और खुद छुप कर भाग गई…
कुछ ख्वाब कुछ अफ़साने वही लोग आये कुछ सुनाने अपनी अपनी वीरानी सब की देखने आये वो तेरे कुछ वीराने देखने आये वो फिर ज़ख्म…
वो फुरसतों के काफिले वो रोज़ मिलने के सिलसिले वो शहर कहाँ खो गया जहाँ पास रहते थे फासले कुछ तो हुआ अजीब सा खो…
सुरमा लगाया था आँखों में जिसका नज़रें मिलते ही खफा हो गए
रिश्ते तो अब बौने हो गए है ख्वाब तो बस बिछोने हो गए है
नवाजिश नवाज़िश जेहन में रहा वो दूर निकल गए अदावत लेकर
जुम्बिश न सही खलिश ही सही तुझे भूलने की कोशिश ही सही वो पा न सके जुस्तजू जो थी कुछ नहीं , इक खवाइश ही…
लिखे जो भी तराने वो तेरे लिए थे तुमने उसे रेत पे लिखा समझा
किधर से आया वो मालूम नहीं अँधेरे में ही कोई आवागमन था
पत्थर के बुतों में बस ढूँढ़ते रहे अपने अंदर के ख़ुदा को पत्थर करके
बंदिशें तोड़ के रख दी पिंजरे में रहते रहते
काफिर ही सही मुसाफिर ही सही वक़्त का खिलौना हाज़िर ही सही
तिनके बटोर बनाया आशियाना बर्क ने फिर गिराया आशियाना मेरे हाथों से लिपटी फिर रेखाएं रेखाओं ने फिर बनाया आशियाना राजेश’अरमान’
ख्वाइशों की उम्र नहीं होती कमबख्त अजर अमर होती है
अपने ख़्वाबों के लिए कोई रात रखना अपने हिस्से की खुद से मुलाकात रखना मौसम चाहे जैसा बदले जब बदले अपने ही अंदर कोई बरसात…
मेरी खोज मृगतृष्णा तेरी वफ़ाएं मृगतृष्णा सारा जीवन मृगतृष्णा
वो फिर मिलेंगे फूल फिर खिलेंगे कुछ हादसें होंगे कुछ फासले होंगे कमबख्त वफ़ा ताउम्र इम्तहान देती रही राजेश’अरमान’
बर्क को नशेमन से क्या आश्ना आवाज़ कब देख सकी जलते आशियाने राजेश’अरमान’
रिश्तों में कोई फासला सा रखना तूफानों में हौसला सा रखना अपने ही घर में चाहे जितने कमरे हो अपने लिए इक …
किसी रंजिश से दो चार नहीं लोग जुगनुओं का भी फ्यूज ढूँढ़ते है
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