Neelam Chawla
किताब ज़ार ज़ार रोई
Posted on April 27, 2016
किताबे भी दर्द मे रोती हैं
सिसकती हैं ,लहू लहान
तेरे दर्द में होती हैं
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वो चंद घंटे पहले शहर
में उतरा ,शहर
की कुछ गलियो मे घूमा
सड़को को देखा ,जन्नत
घूमा,रंग बिरंगे फूल
खुशियाँ ही खुशियाँ
अचानक मोड़ पर मुड़ते ही
टूटे सपनो की बस्ती,
पेट की आग
रोटी का तमाशा
सकंरी गलियाँ,
धूप की आग में लिपटा
मन,टिन टपड़ की छत
और छत के अन्दर
बिखरे वजूद,कच्चा फर्श
कॉच की बोतल,रेंगता
दिल,दो बटन के
बीच से झाकँता जिस्म,
और उस पर टिकी चील
की आँखे
न जाने किन गुनाहो
कि सजा काटता शहर,
घूप अन्धेरा,टूटे मन से
गली मे घुसता सूरज
अंधी गली,अंधा शहर
पर फिर भी कहीं
आखरी नुक्कड़ पर भूखे
बच्चे कन्चो पर निशान
साध,भविष्य को लूटने
की साजिश रचते
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किताब ज़ार ज़ार रोई ये किस्सा बताकर
behatreen!!
nice 🙂
kitabein bhee roti hain.
वाह