‘सच’ बस तु हौले से चल…
वो पलकों की सजावट से, वो गलतियों की बिछावट से, दिखावटी फिसलन की दौड़ में…. मैं नदी से हौसला भर लाऊंगा, ‘सच’ बस तु हौले…
वो पलकों की सजावट से, वो गलतियों की बिछावट से, दिखावटी फिसलन की दौड़ में…. मैं नदी से हौसला भर लाऊंगा, ‘सच’ बस तु हौले…
शिकार करने चली थी बाज का, हुस्न के गुरूर मे ।। हँसी थामे ‘सच’ कहू … पर भी ना मिला कबुतर का ।। ~ सचिन…
‘ब्लैकबोर्ड’ जैसा तुम्हारा दिल, काले पत्थर सा सख्त , पर अन्दर से साफ है ।। ‘चॉक’ से तुम्हारे सुन्दर विचार, इजहार करो, अन्दर रखना पाप…
सिकंदर सा चला था मै, सारी दुनिया जीतने… पर माँ के दिल से हार गया ।। ~ सचिन सनसनवाल
इंसान की भी गजब फितरत है, रिश्ते जुडे़ तो है दिल से… और विश्वास धागों पर करता है । ~ सचिन सनसनवाल
हम तो ख्वाबों की चौखट पर बैठे थे , लेकर हसीन ख्वाब … प्यारी आँखों के परदे पर || ख्वाबों को ख्वाब बनाने , आया…
आज कल के महंगे बॉलपेन से , मेरी कच्ची पेंसिल अच्छी थी || बॉलपेन की रफ़्तार से , मेरी पेंसिल की धीमी लिखावट अच्छी थी…
बैठे है अकेले राह में, दिल में कोई आश है , घडी की बदलती सुइयो के _सही होने का इन्तजार है , कुछ कदम बढाने…
चढ़ती लहरो को पार ना पाये किस्मत की मेरी नाव है कैसी || पुकारे तो नाम में सच पाये झूठी ले रहे ये सांस…
ढूंढने निकला हूँ एक शख्स को , जो खो गया है … मेरे भीड़ में खो जाने के बाद !
जब से लाहगी है चोगठ अपने शहर की , स्कूल वाले जूते याद आने लगे है।। -सचिन सनसनवाल
कुछ समय बाद बिछड़े दोस्तों से हम यु मिले , देख कर उनका नाम भी याद आया , रंग , रूप और उनकी दोस्ती का…
मुर्ख बना मूर्खो को हो रहा नाज देखो मूर्खो का मुर्ख दिवस है आज || मूर्खो पर तुम भी थोड़ा हंस दो भाई मुर्ख हो…
ना गजल ना ही तो गीत है जाल है बस शब्दों का , शब्दों से शुरू हो भीतर ही भीतर खुद से लड़ने की जिद्द…
तुम भी बेवक्त चले हो घर अपने, जब हमने शहादत के स्मारक पर मोहब्बत लिख दी है || ~सचिन सनसनवाल
“सैनिक है मेरे भाई – मैं हूँ किसान का बेटा “ कहने से पहले क्यों तुझे आरोपों का ख्याल नही आया , सैनिको पर…
ना मेरे हाथों में था लहू , ना लगी थी मेहेंदी उसके हाथों में , ना जाने क्यों फिर भी रंग था गहरा || …
होते है वो दिन ख़ास जब ना कुछ खाते है ना पीते है पानी, बस किसी अपने अपने की याद में आँखों से बहता है…
आंधी की आग में जला था एक घर, हँसी थी गई, खिलौने थे टूटे, छूटा था एक बचपन ! घर था टुटा, आदर्श था…
हाथ से मेरे कुछ लकीरें फिसल गई, पलक झपकी ना थी कि… पानी की कुछ बुँदे निकल गई, एक झपकी मे ही सबकुछ बदल गया, लाश तो एक गिरी थी … पर इंसान हर एक बदल गया, कुछ पलों मे ख्वाबो को छोड़ दिल जम गया, मन मे है बस एक ही सवाल – “क्यों वो शख्स बिछड़ गया “? क्यों वो शख्स बिछड़ गया “? -सचिन चौधरी (सनसनवाल)
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