साहिर
साहिर तेरी आँखों का जो मुझपर चल गया,
खोटा सिक्का था मैं मगर फिर भी चल गया,
ज़ुबाँ होकर भी लोग कुछ कह न सके तुझसे,
और मैं ख़ामोश होकर भी तेरे साथ चल गया।।
समन्दर गहरा था बेशक मगर डुबो न सका,
के तेरे इश्क ऐ दरिया में जो ‘राही’ चल गया,
दारु के नशे में जब सम्भला न गया मुझसे,
छोड़ कर चप्पल मैं घर पैदल ही चल गया।।
राही (अंजाना)
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