चार दिन की थी जिंदगी
एक दिन का था बचपन उसमे
थोड़ा-सा कच्चा था,
थोड़ा-सा अच्छा था लेकिन
वो ही सबसे सच्चा था , क्योंकि
जिन्दा था बैखोफ मैं उसमे चाहे
रोता था माँ की गोद मे छुपके!

दूसरे दिन की थी जवानी
जिम्मेदारी ना थी कोई उसमे
बस मस्ती की कंधो पर गठरी थी
सारा दिन घूमता था यहाँ-वहाँ
किसी मंजिल पर जाने की
कहा मुझको जल्दी थी !

तीसरे दिन, मै ना जवान था ना बूढ़ा था
बस ज़िम्मेदारियों का पुतला था
हर कदम सोच-समझकर उठाता था
इतना तो शायद मै माँ की गोद से
उतरकर भी ना घबराता था !

चौथे दिन का था बुढ़ापा
जिसमे था मै सबका काका
कोई मुझसे हंसकर बोलता था
कभी कोई ग़ुस्से से झींकता था
लेकिन मै कुछ नहीं बोलता था बस
सूर्यास्त की राह देखता था !

एक-एक कर चारो दिन ख़त्म हो गए
जिन्दा से हम मुर्दा हो गए !

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