रुको ए मुसाफिर
रुको ए मुसाफ़िर अभी ना जाओ .
डस लेगी ये काली अँधेरी रात तुम्हे,
सहर तलक ठहर जाओ .
दूर है मंजिल तुमसे- राहे अनजान है,
डर है कहीं भटक ना जाओ .
कहीं एसा ना हो कोई अनजान पीछे से-
हाथ पकड़ कर आवाज़ दे तुमको,
और तुम बहक जाओ .
देखने दुनियां के तमाशे को –
लगी है भीड़ हर तरफ,
डर है कहीं तुम खो ना जाओ .
रुको ए मुसाफिर अभी ना जाओ .
Nice poem 🙂
thanks