ग़ज़ल
२१२२ १२१२ २२
अपने ही क़ौल से मुकर जाऊँ ।
इससे बेहतर है खुद में (खुद ही) मर जाऊँ ।।
तू मेरी रूह की हिफ़ाजत है ;
बिन तेरे जाऊँ तो किधर जाऊँ ।
तेरी साँसों को ओढ़कर हमदम ;
जिस्म से रूह तक सँवर जाऊँ ।
इश्क में हद तो पार तब हो जब ;
जिस्म से रूह सा गुजर जाऊँ ।
यूँ तो कतरा हूँ तुम छुओ गर तो ;
इक समन्दर सा मैं भी भर जाऊँ ।
जिस्म को लाद कर चलूँ कब तक ?
दिल तो करता है अब ठहर जाऊँ ।
तुमको पाना हो तब मुकम्मल जब ;
जिस्म में साये सा उतर जाऊँ ।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’
Nice
NIce
nice poem…beautifully expressed 🙂
वाह बहुत सुंदर
Wah