वक़्त की हवा

काश दुनियाँ में ऐसी भी कोई गलती हो

जिसे करने पर भी जिंदगी बेफिक्र चलती हो।

 

ऐसा जहां बनाने की कोशिश में हूँ

जहाँ इंसानियत सिर्फ रब से डरती हो।

 

अरे वक़्त की उस मार से क्या डरना

जो गलतफहमी को दूर करती हो।

 

ऐसी दौलत का मुझे क्या करना

जो मुझे खुद से ही दूर करती हो।

 

प्रेम की परिभाषा किसी घड़े का पानी नहीं

दुनियाँ भले ही ऐसा समझती हो।

 

वें स्कूल कैसे जाएंगे जिन्हें

पेटभर रोटी भी कभीकभार मिलती हो।

 

और उन्हें पढ़नेलिखने की क्या जरूरत

जिनकी हर बार सिफारिश से सरती हो।

 

वो पाश्ताप से भी कैसे सुधरेगी

जो जानबूझकर की गई गलती हो।

 

वक़्त की हवा बदलती जरूर है

चाहे कितनी भी मज़बूति से चलती हो।

 

                                                         –        कुमार बन्टी

 

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