यही सोचा मैं ज़िंदगी की बेहिसी पर ग़ज़ल कहूँगा

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यही सोचा मैं ज़िंदगी की बेहिसी पर ग़ज़ल कहूँगा
अज़ाब तेरे, तेरी अज़ीयत की चाशनी पर ग़ज़ल कहूँगा

भटक रहा हूँ मैं कबसे तन्हा न हमसफर है न रौशनी है
ये सहरा सहरा भटक के यारों मैं तीरगी पर ग़ज़ल कहूँगा

न चाँद अपना न ये सितारे हैं मुझसे रूठे सभी नज़ारे
बयां कर के सभी अदावत में चाँदनी पर ग़ज़ल कहूँगा

ये फूल,खूशबू हसीन नज़ारे मेरे मुक़द्दर में ही नहीं हैं
सभी की मुझसे न जाने क्योंकर मैं दुशमनी पर ग़ज़ल कहूँगा

गरीब हूँ मैं खुदा की मर्जी क़सूर मेरा नहीं है कुछ भी
मगर सदाक़त से बेकसी और मुफलिसी पर ग़ज़ल कहूँगा

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