क्या यही जीवन है

वही हर परेशानी की  सुबह,

वही हर परेशानी की शाम,

वही बिखरता हुआ मानव रोज़

एक से क्रिया कलापों को दोहराता हुआ ,

वही हर रोज़ दोनों समय

दो रोटी के लिए नुक्ता चीनी,

फिर वही परेशां होकर

आदमी का घर से निकल जाना,

फिर दिन भर इधर से उधर

लावारिस सडको पर भटक कर

शाम को बहके कदमो के साथ लोटना,

आकर पड़ जाना एक कोने में,

वही एक सी दिनचर्या

एक सा माहौल ,

कुछ भी तो परिवर्तन नहीं ,

क्या यही जीवन है ?

 

 

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