इतना वक़्त ही कहाँ

इतना वक़्त ही कहाँ मिलता है खाली मुझे

कि मैं कभी किसीसे नाराज़ हो जाऊँ।

 

अभी अपने ही कल खातिर उलझा हूँ इतना

कैसे मैं किसीका साथ आज़ हो जाऊँ।

 

सोचता हूँ कि चलते वक़्त के साथ

अपने ख्यालो की लाज़ हो जाऊँ।

 

औरों का तो मुमकिन हो या हो

चलो अपने ही सिर का कभी ताज़ हो जाऊँ।

 

कईं बार ये भी सोचता हूँ

कि छोड़ खुदको यूँ सरेआम करना

अपने ही दिल में

खुद का हर राज़ हो जाऊँ।

 

 

फिर ये भी सोचता हूँ

कि जरूरतमंदो की

और जरूरतमंदो खातिर

कोई कामयाब आवाज़ हो जाऊँ।

 

किसीका रब बनने का गुण

मुझमे कहाँ होगा

कोशिशसार हूँ

कि अपनी तरफ़ से

बस एक सच्चा इंसान हो जाऊँ।

 

                                                                          –          कुमार बन्टी

 

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