आखिरी मुंसिफ

मैं भी देश के सम्मान को सबसे ऊपर समझता हूँ
तो क्या हुआ कि साहित्यकारों की निंदा पर जुदा राय रखता हूँ
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हूँ पक्षधर
स्त्री-सम्मान को रखता हूँ सबसे ऊपर
मैं नहीं मानता उन्हें माओवादी
नाइंसाफियों के जो होते हैं विरोधी
मजदूर-किसानों की बात को जो उठाए
वे क्यों विकास-विरोधी कहलाएं ?
ना बात-बेबात पाकिस्तान को गालियां देता हूँ
और ना देश के झंडे को ले जज्बाती ही होता हूँ
नेहरू को गाली व पटेल-सुभाष से तुलना
जैसे, पीछे को देख आगे को बढना
पढना अच्छा लगता है, किताबों से प्रेम करता हूँ
(देश में) तानाशाही की आवश्यकता को, शर्म समझता हूँ
विचार भी करता हूँ, करता हूँ बहस भी
असहमतियों को मैं मानता हूँ सहज भी
क्या इसीलिए दोषी-देशद्रोही हूँ ?
कि आपके विचारों का समर्थक नहीं हूँ….
किंचित नहीं मैं विचलित, ध्यान दीजिए
और अच्छा हो यह बात आप भी समझ लीजिए
निंदा-भर्त्सना का, आपका सिलेक्टिव अप्रोच
धीरे धीरे मेरी, बदलने लगा है सोच
आज चाहे ना मानो इसे सही,
पर आखिरी मुंसिफ़, हूँ मैं ही !!

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