ग़ज़ल

ग़ज़ल
उनके चेहरे से जो मुस्कान चली जाती है,
मेरी दौलत मेरी पहचान चली जाती है।

जिंदगी रोज गुजरती है यहाँ बे मक़सद,
कितने लम्हों से हो अंजान चली जाती है।

तीर नज़रों के मेरे दिल में उतर जाते हैं,
चैन मिलता ही नहीं जान चली जाती है।

याद उनकी जो भुलाने को गए मैखाने,
वो तो जाती ही नहीं शान चली जाती है।

एक रक़्क़ासा घड़ी भर को आ के महफ़िल में,
तोड़कर कितनो के ईमान चली जाती है।

खोए रह जाते हैं हम उसके तख़य्युल में ‘मिलन’,
और वो ‘गुलशन ए रिज़वान’ चली जाती है।

बेमक़सद-लक्ष्यहीन
रक़्क़ासा-नाचने वाली
तख़य्युल-याद
गुलशन ए रिज़वान-स्वर्ग के बाग़ सी खूबसूरत सुंदरी,
—– मिलन ‘साहिब’।

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