राही बेनाम
न ये ज़ुबाँ किसी की गुलाम है न मेरी कलम को कोई गुमान है,
छुपी रही बहुत अरसे तक पहचान मेरी,
आज हवाओं पर नज़र आते मेरे निशान है,
जहाँ खो गईं हैं मेरे ख़्वाबों की कश्तियाँ सारी,
वहीं अंधेरों में जगमगाता आज भी एक जुगनू इमाम है,
कुछ न करके भी जहाँ लोगों के नाम हैं इसी ज़माने में,
वहीं बनाकर भी राह कई ये राही बेनाम है॥
राही (अंजाना)
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